Wednesday 12 June 2019

तुम नहीं आए

तुम वापस नही आओगे
इस बात का इल्म है मुझे
फिर भी जब भी
कोई और मेरे करीब आता है
रूह कांप उठती है
जैसे जिस्म के किसी कोने में
अभी भी थोड़ी सी उम्मीद बाकी है

तुम नहीं आओगे
ये कबसे मान लेना चाहती हूँ मैं
फिर क्यों जब भी तुम्हारी बात कही छिड़ती है
मेरी धड़कने ज़रा सी तेज़ हो जाती है
वैसे ही जैसे तुम्हे देखने से पहले होती थी
क्यों पेट में गुदगुदी सी होती है
जैसे कि तुम फिरसे पीछे से लिपट जाओगे
और सारी शिकायतें
एक झटके में मिट जाएंगी

क्यों मैं इंतेज़ार करती रही
जब कि मैंने ही तो
वो दरवाजा बंद किया था
जो सिर्फ तुम्हारे लिए खुला था
क्यों मैं आज भी इंतेज़ार कर रही हुँ
क्यों ना चाहकर भी चाहती हुँ
कि तुम एक बार तो दसतक दो

तुम ही तोह अकसर कहते थे
की चाहे कितना भी वक़्त गुज़र जाए
चाहे हम कितने भी दूर हो
हम मिलेंगे
किसी जगह
जहां इतनी मुश्किलें ना होंगी
किसी वक़्त
जब उलझनें थोड़ी कम होंगी

जब टूटे हुए दिल थोड़ा जुड़ जाएंगे
जब एक दूजे को दिए गए ज़ख़्म
थोड़ा भर जाएंगे
एक दूसरे को देने के लिये
जब फिरसे सुकून होगा
जब आंखें नम नही होंगी
और बातों में ग़म कम होगा

वो दिन नही आएगा
ये जानती हूं मैं
पर फिर भी एक आंख
चौखट पर ही गढ़ी रहती है
 कि कही तुम आ गए तो?

क्या करूँ?
अब ऐसा लगता है जैसे
तुम आगे बढ़ गए
और मैं?
चौखट पर ही रह गयी..







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