Friday 11 December 2020

कुछ लफ्ज़ कैद हैं मेरे मन में

कुछ लफ्ज़ कैद हैं मेरे मन में

कुछ से शायद कुछ ज़्यादा हैं

कुछ हड़बड़ाहट में हैं, कुछ छटपटाहट में

लबों से फिसलने की फिराक में

कुछ सरसरा कर निकलेंगे

जैसे बरसात में उमड़ती नदी

कुछ फड़फड़ा कर डोलेंगे

बन बाग की चंचल तितली

कुछ हिचिचाहट में बैठ जाएंगे

थाम कर तुम्हारी उंगली

लफ्ज़ हैं तो कई मन्न में

पर डरती हूं

कहीं बड़बड़ाकर इन्हे फिजूल ना कर दू

लफ्ज़ ही तो हैं, इन्हे धूल ना कर दू

कभी गुब्बारे बन फुदकते हैं

जैसे अभी पंछियों संग उड़ जाएंगे

और कभी ऐसे जल्दबाजी करते हैं

जैसे रेस के घोड़े से भी आगे दौड़ जाएंगे

कभी सुस्ताते हैं मेरे लफ्ज़

बनकर सरदी की धूप

कभी थिरकते हैं लचककर

लेकर घुंघरू का रूप

लफ्ज़ ही हैं

मगर हैं कुछ ज़्यादा

कभी छिपी हुई मुस्कान

कभी पलको की नमी

कभी अधूरा सा वादा

कभी उमीद

कभी किलस

कभी आक्रोश हैं

जी भरकर बोलेंगे हम भी कभी

पर अभी हम ख़ामोश हैं

Monday 22 June 2020

उस रात की चुप्पी

जुगनू की गूंज
गूंजना कम
शेर की चिंघाड़ ज़्यादा लगे
ऐसी थी उस रात की चुप्पी
ऐसी चुप्पी
कि मोमबत्ती की ताप
जैसे ताप कम और शोर ज़्यादा हो
काली रात के कालेपन में
चांद की चांदनी चांदनी कम 
और दाग ज़्यादा हो
ऐसी थी उस रात की चुप्पी
ऐसी चुप्पी कि कुछ बोलना क्या
सोचना भी ज़्यादा सा लगे
ऐसी चुप्पी में मैं सांस थामे
बस तुम्हारी सांसों को सुनता गया..

Monday 18 May 2020

मेरे टुकड़े

भोर  में मिले पटरी पर मेरे टुकड़े
और मिली चार दिन के सफर की
चार रोटी
रोटी पन्नी में बंधी
पन्नी खून से संधी
टीवी पर देखकर
बाबू निवाला तोड़ते हुए बोले
"चीन को भगवान माफ नहीं करेगा"
बाबू, मेरे देश का क्या?
जिसने अरसे बिता दिए
मेरे टुकड़ों पर इमारतें बनाते हुए

Wednesday 29 April 2020

पीली पतंग


आज छज्जे पर गई
तो पाई एक पीली पतंग
उसकी डोर
गुलाब की डाली से
उलझी हुई थी
डोर सुलझाते हुए
आपकी वो हसी याद आ गई
उस पल की
जिसे आपने हमेशा याद रखने को कहा था
वो पल जिसे
तस्वीर भी कैद नहीं कर पाई
इसलिए मन का एक कोना
मैंने उस लम्हे का कर दिया
कुछ चीजें कुछ लम्हे
कुछ लोग
दुनिया की कैद से परे
आजाद हैं
फिज़ा की तरह
बेबाक हैं
हवा की तरह
बस छू जाते हैं कभी कभी
लहर बनकर
और दिल का एक कोना अपना कर जाते हैं
हस्सकार मैंने डोर सुलझाई
और पतंग को फिर से
उड़ा दिया।