Friday, 11 December 2020

कुछ लफ्ज़ कैद हैं मेरे मन में

कुछ लफ्ज़ कैद हैं मेरे मन में

कुछ से शायद कुछ ज़्यादा हैं

कुछ हड़बड़ाहट में हैं, कुछ छटपटाहट में

लबों से फिसलने की फिराक में

कुछ सरसरा कर निकलेंगे

जैसे बरसात में उमड़ती नदी

कुछ फड़फड़ा कर डोलेंगे

बन बाग की चंचल तितली

कुछ हिचिचाहट में बैठ जाएंगे

थाम कर तुम्हारी उंगली

लफ्ज़ हैं तो कई मन्न में

पर डरती हूं

कहीं बड़बड़ाकर इन्हे फिजूल ना कर दू

लफ्ज़ ही तो हैं, इन्हे धूल ना कर दू

कभी गुब्बारे बन फुदकते हैं

जैसे अभी पंछियों संग उड़ जाएंगे

और कभी ऐसे जल्दबाजी करते हैं

जैसे रेस के घोड़े से भी आगे दौड़ जाएंगे

कभी सुस्ताते हैं मेरे लफ्ज़

बनकर सरदी की धूप

कभी थिरकते हैं लचककर

लेकर घुंघरू का रूप

लफ्ज़ ही हैं

मगर हैं कुछ ज़्यादा

कभी छिपी हुई मुस्कान

कभी पलको की नमी

कभी अधूरा सा वादा

कभी उमीद

कभी किलस

कभी आक्रोश हैं

जी भरकर बोलेंगे हम भी कभी

पर अभी हम ख़ामोश हैं